दिनेश शास्त्री
देहरादून।
पौड़ी की रामलीला में गर्वीली और खनकदार आवाज हो या भजन संध्या में राग आधारित स्तुति या फिर खेलों का आयोजन अथवा लोक कर्म का निर्वहन। पौड़ी के अतीत में हर जगह एक व्यक्तित्व उभरता है – दयासागर धस्माना का। ऐसी बहुमुखी प्रतिभाएं बिरली होती हैं जो अपने समय में कदमों के गहरे निशान छोड़ कर नई पीढ़ी के लिए इबारत लिख जाते हैं। यानी हर समाज, क्षेत्र, परिस्थिति और विधा में अपने अपने समय में कुछ लोग इस कदर गहरी छाप छोड़ जाते हैं कि वे शरीर से बेशक हमारे बीच न रहें, लेकिन उनके पदचिह्न चिरस्थाई होते हैं। पौड़ी और दयासागर धस्माना इसी फ्रेम के एक विलक्षण व्यक्तित्व हैं, जिन्हें कभी भुलाया नहीं जा सकता। बीती 25 जुलाई को स्व. दयासागर धस्माना को देहरादून में उनकी 95वीं जयंती पर याद किया गया। यह अपने आप में अनूठा आयोजन रहा। गढ़रत्न नरेंद्र सिंह नेगी इस मौके पर मुख्य अतिथि थे जबकि दून विश्वविद्यालय की कुलपति सुश्री सुरेखा डंगवाल विशिष्ट अतिथि थी। सूर्यकांत धस्माना ने कार्यक्रम की अध्यक्षता की। प्रशासन, साहित्य- संगीत, राजनीति की त्रिवेणी की मौजूदगी से कार्यक्रम की स्वाभाविक गरिमा बढ़ गई।
स्व. दयासागर धस्माना के सुपुत्र डॉ. योगेश धस्माना के संयोजन में हुए इस समारोह में स्व. दयासागर धस्माना, उनके समकालीन लोगों और पौड़ी के विविध पहलुओं पर केंद्रित पुस्तक ” पौड़ी उनके बहाने” का विधिवत लोकार्पण हुआ। इस पुस्तक का संपादन डॉ. योगेश धस्माना और गढ़वाली के लब्ध प्रतिष्ठित हस्ताक्षर गणेश खुगशाल गणी ने किया है।
‘ पौड़ी उनके बहाने ‘ निसंदेह यादों का पिटारा है। इसमें पौड़ी के विकसित होने से लेकर वहां के लोकजीवन, सामाजिक, सांस्कृतिक गतिविधियों और उसके वैभव पर गहरी दृष्टि डाली गई है। पौड़ी और उसके मिजाज को समेटना निसंदेह श्रमसाध्य कार्य है और संपादक मंडल ने इसे बखूबी निभाया भी है। पुस्तक का प्रकाशन उत्तराखंड के लोक साहित्य के प्रकाशन में संलग्न विनसर प्रकाशन ने किया है। एक तरह से कहना चाहिए कि विनसर प्रकाशन ने अपने रजत जयंती वर्ष में बेजोड़ पुस्तकों की श्रृंखला में एक और बेशकीमती मोती जोड़ा है। इसके लिए विनसर प्रमुख कीर्ति नवानी जी को भी साधुवाद दिया जाना चाहिए।
खासकर नई पीढ़ी के लिए यह अपने इतिहास का प्रतिबिंब देखने और उस दौर के लोगों की कर्मठता, समर्पण और संस्कृति के उन्नयन की जिद के रूप में देखने का झरोखा है। यह एक दस्तावेज है कि कैसे गडोली का बांज का जंगल चाय बागान और अन्य जरूरतों के लिए इस कदर साफ हुआ जैसे उस्तरे से साफ किया गया हो। चाय बागान तो नहीं बना लेकिन पौड़ी का परिवेश जरूर बदल गया। ब्रिटिश गढ़वाल का प्रशासनिक केंद्र होने से यह शहर उत्तरोत्तर विस्तृत होता गया।
कुल पांच खंडों में प्रकाशित इस पुस्तक में पहला भाग स्व. दयासागर जी के प्रति कृतज्ञता ज्ञापन के लिए उनके तथा उनके समकालीन के बारे में है। इसमें दयासागर जी के कलाधर्म, संस्कृति के प्रति अनुराग के साथ ही पौड़ी की यादों की गूंज भी है जिसमें भगवंत नेगी हैं तो खड़ी होली के रसिया याकूब मियां भी नजर आते हैं। प्रख्यात संगीतज्ञ अजीत सिंह नेगी, वीरेंद्र कश्यप, इंदिरा प्रसाद बहुगुणा, होली सम्राट नारायण दत्त थपलियाल सहित अनेक लोगों का स्मरण किया गया है। लोक संस्कृति खंड में पौड़ी के याकूब से लेकर समरसता की सांझी संस्कृति, कुमाऊं के खंतडुवा त्योहार, पौड़ी की रामलीला, टिहरी की होली, पहाड़ों में साहित्यिक जागृति, गोविंद बल्लभ पंत की जन्मस्थली पौड़ी के साथ वरिष्ठ पत्रकार हरीश चंदोला की अस्सी साल पुरानी यादों का लेखा जोखा है। इसी खंड में वो यादें भी हैं जब चाहे रामलीला हो, बैठकी अथवा खड़ी होली हो या क्यूकालेश्वर अथवा ज्वालपा देवी मंदिर की भजन संध्याओं के प्रसंग, कि कैसे दयासागर जी पूरे मनोयोग से अपने साथ ही समूचे समाज की भागीदारी सुनिश्चित कर पाते थे। उन प्रसंगों पर फिर कभी अलग से बात की जा सकती है।
तीसरे भाग में स्व. दयासागर धस्माना जी की आठ कहानियों और छह व्यंग्य रचनाओं को प्रकाशित किया गया है। यह उनके रचनाधर्म का एक पहलू है। यदि इन रचनाओं को स्थान न दिया जाता तो पाठकों को खासकर नई पीढ़ी इस जानकारी से वंचित रहती। पुस्तक के चतुर्थ भाग में एस. पी. सेमवाल की एक और दयासागर जी की छह कविताओं को प्रकाशित किया गया है जबकि अंतिम और पांचवें भाग में पौड़ी शहर के बदलते रूपों, पौड़ी के टेनिस कोर्ट, मेसमौर के आदर्श शिक्षक, प्रशासनिक अफसरों की भागीदारी और सहजता, फिल्म अभिनेता प्रेम नाथ और उनकी पत्नी रीना रॉय का पौड़ी आगमन आदि विविध सामग्री का संचय पौड़ी की जीवंतता को दर्शाता है। पुस्तक के प्रकाशन में प्रमोद धस्माना, उत्कर्ष धस्माना, राधिका धस्माना और डॉ. इंदु भारती घिल्डियाल का योगदान पितृ कार्य में स्वाभाविक सहयोग ही माना जायेगा।
कुल मिलाकर यादों का यह पिटारा अपने समय का न सिर्फ एक दस्तावेज है बल्कि सुनहरे अतीत में झांकने की एक खिड़की भी है, जिस आजकल लोग अक्सर बंद रखते हैं। यह पुस्तक अध्येताओं, साहित्य व संस्कृति प्रेमियों के लिए मूल्यवान तो है ही विरासत को संजोए रखने का अनुपम उपक्रम भी है जिसे डॉ.योगेश धस्माना ने बखूबी निभाया भी है। एक बात और डॉ. धस्माना ने अपने पुत्र धर्म के निर्वहन के साथ अपने लोक के प्रति भी दायित्वों की जिम्मेदारी भी बखूबी निभाई है।